दिल्ली में ‘छोटे डॉन’ का आतंक, जो बड़े-बड़े अपराधों को कम उम्र में कर रहे हैं, कैसे कहा जाए इन्हें नाबालिग

दिल्ली में ‘छोटे डॉन’ का आतंक, जो बड़े-बड़े अपराधों को कम उम्र में कर रहे हैं, कैसे कहा जाए इन्हें नाबालिग

वेलकम इलाके में मंगलवार रात एक नाबालिग ने एक लड़के को बेरहमी से मार डाला और खून से सना चाकू लेकर डांस करता रहा। जिस भी व्यक्ति ने सीसीटीवी फुटेज देखा, वह सन्न रह गया। अगस्त में भजनपुरा में एक ऑनलाइन शॉपिंग ऐप के वरिष्ठ अधिकारी की हत्या हुई। कातिल उस समय “नाबालिग” था। गैंग ने सोशल मीडिया पर टैगलाइन दी थी, “नाम बदनाम, पता कब्रिस्तान।

” यह एक उदाहरण है कि टशन, नशा और सोशल मीडिया पर छा जाने की चकाचौंध कैसे नाबालिगों को अपराध में डाल रही है। मुख्य कारणों से नाबालिगों को अपराधी बनाया जाता है। एनबीटी से बातचीत में फॉरेंसिक साइंस और जुवेनाइल बोर्ड के विशेषज्ञों ने कई मुद्दों को उठाया। सामने है

नाबालिग अपराधियों का ब्रेन बिहेवियर क्या कहता है?

अमन कुमार यादव फिंगरप्रिंट डिपार्टमेंट और नार्को-लाई डिटेक्शन फॉरेंसिक साइकोलॉजी (FSL) दिल्ली के एचओडी हैं। वह 26 वर्षों में फॉरेंसिक क्राइम इन्वेस्टिगेशन में 1000 से अधिक संगीन केसों में लाई डिटेक्शन, नार्को और फिंगर प्रिंट में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिनमें श्रद्धा वालकर मर्डर और निर्भया गैंगरेप केस महत्वपूर्ण हैं। उन्हें अपराधियों, खासकर नाबालिगों, के ब्रेन व्यवहार की जानकारी मिली। उनका कहना था कि हर बड़े मामले में नार्को जांच और व्यवहार को समझने पर तीन महत्वपूर्ण मुद्दे ज्यादा उभर कर सामने आए।

पहला समाजिक और पारिवारिक परिवेश, दूसरा नशा और तीसरा मोबाइल पर आसानी से उपलब्ध हिंसक वेब सीरीज, फिल्में और इंस्टाग्राम रील्स। ये तीन प्रमुख कारण नाबालिगों को अपराधी बनाते हैं। इन्हें ‘रील्स से रियल’ होने का विचार अच्छा लगता है। पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ी चिंता यह रही है कि बड़े अपराधी और उनके गैंग इन नाबालिग बच्चों को भरपूर पैसे, टशन और नवीनतम हथियार देकर उनका हर छोटी-छोटी आवश्यकता पूरी कर रहे हैं। जुवेनाइल ने बहुचर्चित निर्भया केस में केस एनालिसिस किया था।

जो बाद में रिलीज़ हुआ। जस्टिस वर्मा कमिटी उस समय बैठी थी। तब उन्होंने कहा कि क्राइम को उसकी गंभीरता को देखते हुए, उसे शारीरिक आधार से नहीं बल्कि दिमागी मानसिकता से डिफाइन करना चाहिए। बाद में जस्टिस वर्मा की कमिटी ने भी मान लिया और उसके अनुसार बदलाव भी हुआ।

‘पुलिस थ्योरी’ साइकोलॉजी नहीं है।

मान लीजिए कि कोई नाबालिग बलात्कार करता है। तब वह बच्चा नहीं होगा। बल्कि वह अपराध करने के लिए परिपक्व है। यदि वह परिपक्व है, तो उसे बालिग की तरह ही सजा मिलनी चाहिए। ऐसा ही हुआ था जब हम श्रद्धा वालकर का मुकदमा कर रहे थे। आफताब का मेंटल बिहेवियर पढ़ने में हफ्ते का समय लगा। क्योंकि फॉरेंसिक साइंस में साइकोलॉजी को “पुलिस थ्योरी” से कोई संबंध नहीं है। आफताब को समझने के लिए उसके विचारों को समझना था। एनसीआरबी का 2022 का डेटा बताता है कि नाबालिगों में अपराध बढ़ रहा है।

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