“आत्मा” और “परमात्मा” दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं जो एक ही परम तत्व को बताते हैं।
“आत्मा” और “परमात्मा” दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं जो एक ही परम तत्व को बताते हैं।
आत्मज्ञान (Self-realisation in English) परमात्मा का स्वरूप समझना है। राग, द्वेष, क्लेश और आत्मज्ञान की कमी के कारण लोग इस दुनिया में दुःख भोगते हैं। समझदार व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त करता है, अपने अगले जन्म को सुधारता है और मोक्ष पाता है। मनुष्य जन्म का मूल्य इसी में है कि वह समय रहते समझ जाए कि जन्म लेने के बाद उसका अंतिम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि मानव शरीर भवसागर पार करने वाली एक नाव की तरह है, और इसमें निवास करने वाली जीवात्मा परमात्मा से जुड़ी हुई है; आत्मा को पहचाना ही आत्मदर्शन है।
आत्मा का परम रूप—साधारण लोग परमात्मा को अपने से अलग समझते हैं, लेकिन आत्मा और परमात्मा एक ही परम तत्व का दो नाम हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि आत्मा का परम रूप, “परमात्मा” है। “परम” का अर्थ है पूरी तरह से या विशाल। परमात्मा और आत्मा को जल की एक बूंद और अथाह समुद्र के रूप में देखा जा सकता है। परमात्मा उस परम तत्व का अनंत समुद्र है, और आत्मा एक छोटी सी बूंद है। धर्मशास्त्रों में आत्मा, परमात्मा और शरीर के संबंध को समझाने के लिए कई उदाहरण हैं। आत्मा मानव शरीर में उसी प्रकार विद्यमान है जैसे विराट सागर एक घड़े में समाया हुआ है।
जब हम एक घड़े में सागर से पानी भरते हैं, तो उसके अंदर समाने वाले जल को आत्मा कहते हैं, और घड़े से बाहर स्थित अथाह समुद्र को परमात्मा कहते हैं। आत्मा, परमात्मा का अंश, शरीर रूपी घड़े में उसी तरह विद्यमान है जैसे अनंत समुद्र की कुछ बूंदें घड़े में हैं। इस विचार को समझने के लिए कबीरदास ने कहा,
कुंभ जल में है, बाहर पानी है।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तथ कहौ गियानी।
हमारी इन्द्रियां, मन और अहंकार अपने शरीर को एक घड़ा की तरह बनाते हैं। जब घड़े की दीवार किसी भी कारण से टूटती है, तो मनुष्य की आत्मा परम तत्व में विलीन हो जाती है। परमात्मा सब कुछ है, चाहे छोटा हो या बड़ा। परमात्मा की ऊर्जा के बिना ब्रह्माण्ड संचालित नहीं हो सकता। एक ही ऊर्जा पूरे ब्रह्माण्ड को चलाती है।
मरने से अंत नहीं होता
धर्मशास्त्रों में शरीर को आत्मा का कारावास कहा जाता है, जिसमें आत्मा शरीर के बंधनों से जकड़ी हुई होती है, जो “सांप-छछूंदर” की तरह होती है. जब शरीर आत्मा को संभालने के लायक नहीं रहता, तो आत्मा शरीर का कारावास तोड़कर बाहर निकलती है, जिसे मृत्यु कहते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार, मृत्यु को अंत नहीं मानते, इसलिए हमेशा अच्छे काम करते रहना चाहिए। ईश्वरीय विधान के अनुसार, आत्मा अजर, अमर और अविनाशी है, और पृथ्वी पर कई जन्म लेती है। मनुष्य बनने के बाद आत्मा का पहला लक्ष्य मोक्ष की ओर बढ़ना है।
कड़वा सत्य
प्रत्येक दिन काल हमें मृत्यु की ओर ले जाता है, सारा संसार धीरे-धीरे मृत्यु की ओर चल रहा है, इसलिए समय रहते जाग जाना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। गीता, गुरुपुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन आत्मा से जुड़े तत्वों का ज्ञान देता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि आत्मा मर नहीं जाती; वह सिर्फ शरीर रूपी कपड़े बदलती है। सभी को आत्मा, परमात्मा का अस्तित्व समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है, आत्मज्ञान के बारे में कबीरदास ने कहा भी,
आत्मज्ञान के बिना क्या मथुरा क्या काशी?
ग्रह नक्षत्रम्, प्रयागराज, योगी आशुतोष वार्ष्णेय