Savitribai Phule Jayanti 2024: भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, जिन पर पत्थर फेंक दिए गए
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Savitribai Phule Jayanti 2024
Savitribai Phule की इतिहास: 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नयागांव में एक दलित परिवार में पैदा हुई सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका बन गई। पिता का नाम खन्दोजी नैवेसे था, और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले मराठी कवयित्री, समाज सुधारक, शिक्षक और भारत में नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थीं। बालिकाओं को शिक्षित करने के लिए उन्हें समाज का व्यापक विरोध झेलना पड़ा। उन्हें कई बार समाज के ठेकेदारों से पत्थर भी खाना पड़ा।
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आजादी के पहले तक भारत में महिलाएं दोयम दर्जे की समाज में शामिल थीं। उन्हें आज की तरह शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था। वहीं १८वीं सदी में महिलाओं को स्कूल जाना भी पाप था। ऐसे समय में सावित्रीबाई फुले ने जो कुछ किया, वह एक अनूठी उपलब्धि थी। वह स्कूल जाती थी तो लोग उसे पत्थर मारते थे। इस सब के बावजूद, वह अपने लक्ष्य से कभी नहीं भटकीं और महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाया। उन्हें आज के मराठी साहित्य का पिता कहा जाता है। 1848 में, भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई ने अपने पति समाजसेवी महात्मा ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर बालिकाओं के लिए एक स्कूल खोला।
नौ साल की उम्र में शादी हो गई
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Savitribai Phule की शादी बहुत छोटी उम्र में हुई थी। 1940 में, उन्होंने नौ साल की उम्र में ज्योतिराव फुले से शादी की। वह शादी करने के तुरंत बाद अपने पति के साथ पुणे आ गईं। वह विवाह करने के समय पढ़ी-लिखी नहीं थीं। लेकिन उनका मन पढ़ाई में बहुत लगा हुआ था। उन्हें पढ़ने और सीखने की उनकी लगन से प्रभावित होकर उनके पति ने उन्हें लिखने और पढ़ने का प्रशिक्षण दिया। सावित्रीबाई ने पुणे और अहमदनगर में शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लिया और एक योग्य शिक्षिका बनीं।
9 छात्राओं के लिए पहले स्कूल की स्थापना: सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ 3 जनवरी 1848 में पुणे में विभिन्न जातियों की नौ छात्राओं के साथ महिलाओं के लिए पहला स्कूल स्थापित किया। एक वर्ष में श्रीमती सावित्रीबाई और महात्मा फुले ने पांच नए स्कूल स्थापित किए। तत्कालीन सरकार ने भी उनका सम्मान किया। सन् 1848 में एक महिला प्रिंसिपल के लिए बालिका विद्यालय चलाना कितना कठिन रहा होगा, इसकी आज भी कल्पना नहीं की जा सकती। उस समय लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक प्रतिबंध थे। उस समय, सावित्रीबाई फुले ने खुद पढ़ने के अलावा दूसरी लड़कियों को भी पढ़ाया।
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भारत में आजादी से पहले छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह और विधवा-विवाह जैसी कुरीतियां व्याप्त थीं, जिसमें लोग पत्थर मारते और गंदगी फेंकते थे। सावित्रीबाई फुले का जीवन बहुत कठिन था। उन्हें दलित महिलाओं के उत्थान के लिए काम करने और छुआछूत के खिलाफ आवाज उठाने पर भी व्यापक विरोध हुआ। जब वह स्कूल जाती थीं, उनके प्रतिद्वंद्वी उन्हें पत्थर मारकर गंदगी फेंकते थे। स्कूल पहुंचते ही सावित्रीबाई एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थीं, फिर गंदी साड़ी बदल लेती थीं। उन्हें आज से सौ साल पहले महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी पुणे में पहला बालिका विद्यालय खोला, जब लड़कियों को शिक्षा देना एक अभिशाप था. यह देश में एक नई शुरुआत थी।
सावित्रीबाई को देश में विधवाओं की दुर्दशा भी बहुत दुख पहुंचाती थी क्योंकि उनका लक्ष्य समाज में महिलाओं को हक दिलाना था। इसलिए उन्होंने 1854 में विधवाओं के लिए एक आश्रय खोला। वर्षों के लगातार सुधार के बाद, यह 1864 में एक बड़े आश्रय में बदलने में सफल रही। इस आश्रय गृह में निराश्रित महिलाओं, विधवाओं और बाल बहुओं को स्थान मिलने लगा।
सभी को सावित्रीबाई पढ़ाती लिखाती थीं। यशवंतराव, एक विधवा के बेटे, भी इस संस्था में आश्रित था। उस समय आम गांवों में दलितों और नीच जाति के लोगों को कुंए पर पानी लेने के लिए जाना वर्जित था। उन्हें और उनके पति को यह बहुत परेशान करता था। ताकि लोग भी आसानी से पानी ले सकें, उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर एक कुआं खोदा। उस समय भी उनके इस कदम का बहुत विरोध हुआ था।
ज्योतिराव, सावित्रीबाई का पति, 1890 में स्वयं मर गया। उस समय, वे सभी सामाजिक नियमों को छोड़कर अपने पति का अंतिम संस्कार किया और उनकी चिता को अग्नि दी। सात साल बाद, 1897 में महाराष्ट्र में प्लेग फैल गया, तो वे प्रभावित इलाकों में लोगों की मदद करने निकल पड़ी; हालांकि, वे खुद भी प्लेग का शिकार हो गए और 10 मार्च 1897 को मर गए। read more